|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *तत्त्वज्ञाननीति* " ( २७५ )
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*श्लोक*---
" यो यत्र कुशलः कार्ये तं तत्र विनियोजयेत् ।
कर्मसु अदृष्टकर्मा यः शास्त्रज्ञोऽ पि विमुह्यति " ।।
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*अर्थ*---
जो जिस काम में कुशल है , उसकी योजना उस काम के लिए करनी चाहिए । काम प्रत्यक्ष अनुभव जिसको नही होता वह शास्त्रज्ञ भी हुआ तो ( केवल पुस्तकी ज्ञान कुछ काम नही आता ) उसे प्रत्यक्ष काम करते समय अनुभव न होने के कारण वह भ्रमित हो जाता है।
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*गूढार्थ*----
" योग कर्मसु कौशलम् " ऐसा कहा ही गया है । अपने काम में कुशलता यह एक प्रकार का योग ही कहा गया है ।
" यः क्रियावान् स पण्डितः "। ऐसा बताया गया है ।
किसी भी क्षेत्र में पुस्तकीज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष कृति को ज्यादा महत्व रहता है ।
अध्यात्म हो या इतर कोई भी क्षेत्र या तत्त्वज्ञान पुस्तकी ज्ञान से प्रत्यक्ष कृति ही महत्वपूर्ण मानी जाती है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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