Tuesday, December 18, 2018

Sanskrit subhashitam

|| *ॐ* ||
      " *सुभाषितरसास्वादः* "
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     " *तत्त्वज्ञाननीति* " ( २७५ )
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*श्लोक*---
     " यो  यत्र  कुशलः  कार्ये  तं  तत्र  विनियोजयेत् ।
कर्मसु  अदृष्टकर्मा  यः  शास्त्रज्ञोऽ पि  विमुह्यति  " ।।
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  *अर्थ*---
जो  जिस  काम  में  कुशल  है , उसकी  योजना  उस  काम  के  लिए  करनी  चाहिए ।  काम  प्रत्यक्ष  अनुभव  जिसको  नही  होता  वह  शास्त्रज्ञ  भी  हुआ  तो (  केवल  पुस्तकी  ज्ञान  कुछ  काम  नही  आता )  उसे  प्रत्यक्ष  काम  करते  समय  अनुभव  न  होने  के  कारण  वह  भ्रमित  हो  जाता  है।
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*गूढार्थ*----
" योग  कर्मसु  कौशलम् " ऐसा  कहा  ही  गया  है । अपने  काम  में  कुशलता  यह  एक  प्रकार  का  योग  ही  कहा  गया  है ।
" यः क्रियावान्  स  पण्डितः "।  ऐसा  बताया  गया  है ।
किसी  भी  क्षेत्र  में  पुस्तकीज्ञान  की  अपेक्षा  प्रत्यक्ष  कृति  को  ज्यादा  महत्व  रहता  है ।
अध्यात्म  हो  या  इतर  कोई  भी  क्षेत्र  या  तत्त्वज्ञान  पुस्तकी  ज्ञान  से  प्रत्यक्ष  कृति  ही महत्वपूर्ण  मानी  जाती  है ।
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*卐卐ॐॐ卐卐*
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डाॅ. वर्षा  प्रकाश  टोणगांवकर 
पुणे / नागपुर  महाराष्ट्र 
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