|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *अन्योक्ति* " ( २७४ )
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" *चन्द्र--अन्योक्ति* "
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" शंकरशिरसि निवेशितपदेति मा गर्वमुद्वहेन्दुकले ।
फलमेतस्य भविष्यति तव चण्डीचरणरेणुमृजा " ।।
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*अर्थ*----
शंकर के मस्तक पर आरूढ हुई हे चन्द्रकले ! इतना गर्व मत करो । गर्व से मस्तक पर बैठने का परिणाम क्या होता है यह पता नही क्या ? हे चन्द्रकले ! तुमको पार्वती के चरणरज में मिलना होगा ।
( क्योंकि जब प्रेम से या सन्मान के कारण शंकर पार्वती के चरणों में शिश झुकायेंगे तब तुमको मिट्टी में मिलना होगा इसलिए आज उच्चस्थान का गर्व मत करो )
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*गूढ़ार्थ*-----
हमेशा राजा या उच्चपदस्थ व्यक्ति के साथ रहने वाली व्यक्ति को भी उतना या अपना काम करवाने के लिए कुछ ज्यादा ही मान मिलता है । किन्तु जब इनकी कुर्सी चली जाती है तो उनके साथ वाले यह अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है ।
उनको भी अपने स्वामी के साथ स्वामी से भी ज्यादा झुकना पडता है।
आप लोग अगर और भी अर्थ निकाल सकते है तो मुझे भी सुझाव दीजीए । आपके मत सहर्ष आमन्त्रित है ।
क्यों कि ""अन्योक्ति "" सबके लिए ही खुला मंच है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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