Friday, December 14, 2018

Sanskrit subhashitam

|| ॐ ||
   " सुभाषितरसास्वादः "
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   " प्राज्ञनीति " ( २७१ )
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    श्लोक---
  " मीनः स्नानरतः फणी  पवनभुङ्म मेषस्तु  पर्णाशनो 
     नीराशः  खलु  चातकः प्रतिदिनं  शेते  बिले  मूषकः ।
      भस्मोध्दूलनतत्परः खलु  खरो ,  ध्यानाधिरूढो  बकः 
      सर्वे  किं  ननु  यान्ति  मोक्षपदवी ?  ज्ञानप्रधानं  तपः ।। "
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अर्थ---
   तपश्चर्या  की  बाह्यांगे  -- स्नान , वायुभक्षण ,  तृणपर्णाहार ,  जलाहार , गुहा  में  निवास ,  भस्मचर्चा ,  ध्यान  इत्यादि  अनुक्रमे  मासे ,  सर्प , मेष , चातक , चूहा ,  गर्दभ  और  बक  यह  सब  करते  है  पर  उन्हे  कहाँ  मोक्ष  मिलता  है  ?  तप  का  ज्ञान  ही  प्रधान  तत्व  है ।
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   गूढ़ार्थ----
   मत्स्य प्रतिदिनं  पवित्र  नदी  या  सागर  में  स्नान  करता  है ,  सर्प  वायु  भक्षण  करके  जीता  है ,  मेष  पर्णाहार  करके  जीता  है ,  चातक  बारिश  का  जल  पीकर  ही  जिता है ,  चुहा  गुहा  में  ही  वास  करता  है ,  गर्दभ  भस्म  में  सोता  है ,  और  बक  हमेशा  ध्यान  लगाकर  ही  खडे  होता  है ।
किन्तु  इन  सबको  मोक्ष  थोडे  ही  मिलता  है  ?  तप  के  लिये  तो  ज्ञान  अत्यावश्यक  है  और  वह  मिलने  के  लिए  उपरोल्लिखित  सब  अंगों  के  साथ  ज्ञान  और  वैराग्य  आवश्यक  है  तो  ही  मोक्ष  मिलने  की  संभावना  रहती  है ।  यहाँ  पर  सुभाषितकार  का  निसर्ग   और  पशु-पक्षी  का  निरिक्षण  और  सूक्ष्म  अभ्यास  दृगोचर  होता  है । 
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डाॅ. वर्षा  प्रकाश  टोणगांवकर 
पुणे  /  नागपुर  महाराष्ट्र 
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