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" सुभाषितरसास्वादः "
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" प्राज्ञनीति " ( २७१ )
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श्लोक---
" मीनः स्नानरतः फणी पवनभुङ्म मेषस्तु पर्णाशनो
नीराशः खलु चातकः प्रतिदिनं शेते बिले मूषकः ।
भस्मोध्दूलनतत्परः खलु खरो , ध्यानाधिरूढो बकः
सर्वे किं ननु यान्ति मोक्षपदवी ? ज्ञानप्रधानं तपः ।। "
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अर्थ---
तपश्चर्या की बाह्यांगे -- स्नान , वायुभक्षण , तृणपर्णाहार , जलाहार , गुहा में निवास , भस्मचर्चा , ध्यान इत्यादि अनुक्रमे मासे , सर्प , मेष , चातक , चूहा , गर्दभ और बक यह सब करते है पर उन्हे कहाँ मोक्ष मिलता है ? तप का ज्ञान ही प्रधान तत्व है ।
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गूढ़ार्थ----
मत्स्य प्रतिदिनं पवित्र नदी या सागर में स्नान करता है , सर्प वायु भक्षण करके जीता है , मेष पर्णाहार करके जीता है , चातक बारिश का जल पीकर ही जिता है , चुहा गुहा में ही वास करता है , गर्दभ भस्म में सोता है , और बक हमेशा ध्यान लगाकर ही खडे होता है ।
किन्तु इन सबको मोक्ष थोडे ही मिलता है ? तप के लिये तो ज्ञान अत्यावश्यक है और वह मिलने के लिए उपरोल्लिखित सब अंगों के साथ ज्ञान और वैराग्य आवश्यक है तो ही मोक्ष मिलने की संभावना रहती है । यहाँ पर सुभाषितकार का निसर्ग और पशु-पक्षी का निरिक्षण और सूक्ष्म अभ्यास दृगोचर होता है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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