|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सरितान्योक्ति* " ( २४६ )
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*श्लोक*-----
" छाया प्रकुर्वन्ति नमन्ति पुष्पैः फलानि यच्छन्ति तटद्रुमा ये ।
उन्मूल्य तानेव नदी प्रयाति तरङ्गिणां किं प्रतिपन्नमस्ति ? " ।।
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*अर्थ*----
तीर पर जो वृक्ष होते है वह नदीपर छाया करते है , और फूल देकर नदी की पूजा भी करते है , उसे नमन भी करते है । किन्तु नदी उन्हे उखाड़कर आगे निकल जाती है । मनुष्य की मैत्री कहाँ स्थिर होती है ?
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*गूढ़ार्थ*----
यहाँ पर *तरङ्गी* के उपर रूपक किया गया है । तरङ्गी= लहरी = चञ्चलता । नदी में तरङ्ग मतलब लहरे होती है । वैसे ही *लहरी* लोग जो होते है उनकी मैत्री कहाँ स्थिर होती है । कब लहरी ( चञ्चल ) लोग मैत्री छोडकर आगे निकल जायेंगे यह कोई नही कह सकता । हम में से हर एक ने ऐसे चञ्चल मैत्री का अनुभव तो किया ही है न ?
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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