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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *दैवाख्यानम्* " ( *भाग्याविषयी*) (२४४)
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*श्लोक*-----
" धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे
भार्या गृहद्वारि जनाः स्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः "।। ( *भर्तृहरिशतकत्रयम्* )
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*अर्थ*-----
मनुष्य यह जग छोडकर जाते समय उसके पिछे कुछ भी जाता नही है । धन जमीन में ही गड़ा रह जाता है , गायें और भेड़ गऊशाला में रह जाते है । पत्नी घर के दरवाजे ( देहली ) तक ही साथ देती है।और बाकी लोग स्मशान तक साथ आते है । इतना ही नही हमारा देह भी चिता तक ही साथ देता है । परलोक के मार्ग पर जीव अकेला ही चला जाता है । उस मार्ग पर केवल और केवल उसके कर्म ही साथ देते है ।
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*गूढ़ार्थ*-----
जीवन का अंतिम सत्य सुभाषितकार ने कथन किया है । परलोक के मार्ग पर जीव अकेला ही आगे चलता है लेकीन उसके अच्छे- बुरे कर्म ही उसके पिछे आते है । इसलिए लोगों अच्छे कर्म करिए क्यों कि वही दैव ( भाग्य ) बनकर आपके साथ चलेंगे ।
कितना गहन अर्थ यहाँ पर छिपा है न ?
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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