|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *कविप्रशंसा* " ( २५७ )
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*श्लोक*----
" इतरतापशतानि निजेच्छया
वितर तानि सह चतुरानन ।
अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं
शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख ।। "
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*अर्थ*--
हे ब्रह्मदेवा ! इतर सैकडों दुःख स्वेच्छा से आप मुझे दो वह मैं आनंद से सह लूंगा परन्तु अरसिकों के सामने काव्यवाचन करना मेरे नसीब में मत लिखो ।
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*गूढ़ार्थ*----
सुभाषितकार ने अंतर्गत दुःख व्यक्त करते हुए कहा है कि आयुष्य में कितने भी दुःख आप हे विधाता मुझे दीजीए पर अरसिकों के सामने काव्यवाचन मुझे आप मत देना । सह्रदय कवी को अरसिक श्रोता अगर मिल जाता है , जिसे अर्थ ना समझे जो सामने बैठकर जम्हाई ले या और कुछ ऐसा करे की कवी का काव्यवाचन की तरफ ध्यान ही ना रहे तो ऐसे अरसिक श्रोताओं के सामने काव्यवाचन करने से सौ गुना बाकी दुःख मैं सह लूंगा ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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