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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *तत्त्वज्ञाननीति* " ( २१७ )
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*श्लोक*----
" आचार्यात् पादमेकं स्यात् पादं सब्रह्मचारिभिः ।
पादं तु मेधया ज्ञेयं शेषं कालेन पच्यते ।। "
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*अर्थ*----
शिक्षण का पाव ( १/४ ) हिस्सा आचार्य से प्राप्त होता है । पाव ( १/४ ) हिस्सा वर्गबन्धु के साथ चर्चा से प्राप्त होता है । पाव ( १/४ ) हिस्सा खुद की बुद्धि के द्वारा प्राप्त होता है । और बचा हुआ खुद के अनुभव से प्राप्त होता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
एखादी विद्या सिखते वक्त अभ्यास के अलावा भी उसे आत्मसात करने की प्रक्रिया होती है । केवल वाचन -- श्रवण से वह आत्मसात नही होती और उसपर प्रभुत्व भी नही आता । उसमें पूर्णत्व आने के लिये काल का , बुद्धि का और इतर भी सहभाग आवश्यक है ।
सुभाषितकार ने यहाँ पर यही बताया है , शिष्य को वर्ग में केवल २५% ही फायदा होता है , मतलब विषय समझता है । बाकी २५% अपने सहकारीयों के साथ चर्चा करके होता है और फिर उस अभ्यास की बैठक पक्की हो जाती है । मतलब अब तक आधा काम हो गया और अब खुद की बुद्धि के द्वारा उसमें के बारकियां समझनी पडती है । तब विषय ७५% पुरा होता है उसकी व्याप्ति समझती है और आखिर में अनुभूति अत्यावश्यक होती है उसके बिना कोई विषय को पूर्णत्व प्राप्त नही होता इसलिये कालांतर से अनुभव लेने के बाद विषय पूरा और पक्का होता है ।
विषय आत्मसात करने के लिये वाचन , मनन , चिन्तन और अनुभव अत्यावश्यक है ।
डाँक्टर , वकील वगैरे लोग प्रत्यक्ष मामले जबतक सुलझाते नही तबतक उनको पुरा ज्ञान प्राप्त नही होता ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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