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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *भ्रमरान्योक्ति* " ( २०९ )
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*श्लोक*----
" अपनीतपरिमलान्तरकथे पदं न्यस्तदेवतरु कुसुमे ।
पुष्पान्तरेऽपि गन्तुं वाञ्च्छासि चेद् भ्रमर धन्योऽसि ।। "
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*अर्थ*-----
हे भ्रमरा ! अरे त्रिखण्ड में किसी भी पुष्पगन्ध से जिसका परिमल श्रेष्ठ है , ऐसे देवतरु--कल्पतरू के फुलपर अपने पैर धीरे से टेकने के बाद और उसमें जो मकरंद है उसका आस्वाद लेने के बाद भी तुम दूसरे सामान्य फूलों की ओर जाते हो ? धन्य है हे भ्रमर आपकी !
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*गूढ़ार्थ*-----
यहाँ पर भ्रमर यह रसिक वृत्ति का प्रतीक है , कल्पवृक्ष श्रेष्ठतम गोष्टी का निदर्शक है । एकाध अप्रतिम कलाकृती का आस्वाद लेने के बाद अगर निकृष्ट दर्जे की कलाकृती की तरफ मन झुका या उसके लिये जी जान लगा दिया तो क्या होगा ? उसकी वृत्ति इस मधुकर जैसी ही तो कही जायेगी न ? महाकवी कालिदास का शाकुन्तल पढने के बाद यदि कोई निकृष्ट दर्जे का पुस्तक पढेगा तो कितना कमनसीब है उस वाचक का , जिसको ऐसी इच्छा हुई।
जीवन के हर क्षेत्र में इस प्रकार के हीन अभिरुची के उदाहरण मिल जायेंगे, मनोरंजन क्षेत्र, खाद्यपदार्थ , वेशभूषा , मैत्री , कलाकृती , सजावट इत्यादि हर क्षेत्र में यह नियम लागू होता है ।
सुभाषितकार ने भ्रमर को लेकर यह अन्योक्ति लिखी है फिर भी वह दिखाना चाहता है ऐसे हीन अभिरुचि वाले लोग ही है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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