|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *भक्तिमहिमा* " ( २१२ )
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*श्लोक*----
" सति अपि भेदापगमे , नाथ तव अहं , न मामकीनः त्वम् ।
सामुद्रो तरङ्ग वक च न समुद्रो हि तारङ्गः ।। " ( श्रीशंकराचार्य )
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*अर्थ*----
हे स्वामी ( परमेश्वरा ) आप का और मेरा भेद दूर हो गया तो भी मै आपका और आप मेरे नही हो । क्योंकि लहर समुद्र की रहती है किन्तु समुद्र लहर का नही रहता ।
ईश्वर की सत्ता मनुष्य पर चलती है किन्तु मनुष्य की सत्ता ईश्वर पर नही चलती । इसलिये भक्तिमार्ग को विशिष्ट अर्थ है । लहर में समुद्र का ही पानी रहता है किन्तु समुद्र ने ही लहर निर्माण की इसलिये उसका क्षय है ।
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*गूढ़ार्थ*----
कितना गहन अर्थयुक्त श्लोक सुभाषितकार ने यहाँ पर लिया है । भक्ति मार्ग का श्रेष्ठत्व प्रतिपादन करनेवाला यह श्लोक जितनी बार पढ़ोगे उतनी बार हमे नया अर्थ मिलेगा । समुद्र से ही लहर का निर्माण / जन्म हुआ है और जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु भी निश्चित ही है । लहर का धीरे- धीरे क्षय होता है । ईश्वर की सत्ता मनुष्य पर चलती है किन्तु मनुष्य की सत्ता ईश्वर पर नही चलती ।
ईश्वर को प्राप्त करने के लिये निरपेक्ष और निर्मल भक्ति ही महत्वपूर्ण है । भक्ति से देव और भक्त दोनो सारूप्य तो होते है किन्तु ईश्वर पुरी तरह से हमारा कभी नही हो सकता । क्यों कि ईश्वर समुद्र सादृश्य अथांग है और अगर भक्ति से हम सारुप्य हुए तो हम समुद्र की एक लहर है ।
इस सुभाषित पर और भी विचार अपेक्षित है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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