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" *वन्देसंस्कृतमातरम्* "
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" *लौकिकन्यायकोशः* " ( १३३ )
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" *शूर्पन्यायः* "
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शूर्पः धान्यस्य स्वच्छतासंपादनाय उपयुज्यते । स च धान्ये वर्तमानान् अनावश्यकान् शिलाकणान् दूरी करोति आवश्यकं च धान्यं समीकरोति।
एवं मेधावी दोषान् दूरीकृत्य गुणान् एव स्विकरोति इति भावः । एवमेव शिष्यः गुरूणां गुणान् आददीत न दोषान् इति तात्पर्यम् ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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