|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *पातु वः* " ( १३६ )
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संस्कृत काव्यवाङ्गमय में यह एक बडा ही चमत्कारिक प्रकरण है ।
संस्कृत नाटक के शुरुवात में मङ्गलाचरण का एक श्लोक रहता है।
उसे नान्दी ऐसा कहा जाता है । उसमें उस कवी के आराध्य देवता का वर्णन रहता है । और वह ऐसा ऐसा देव आपकी रक्षा करे इस तरह का होता है । ज्यादातर नान्दीयां अर्थों में क्लिष्ट होती है ।
लेकिन कभी - कभी कवी नान्दी के नाम पर , चमत्कृति के नाम पर उसमें काफी शृंगारयुक्त वर्णन करते है । उसमें कभी -कभी देवता का विडम्बन होता है यह उनके ध्यान में नही आता । काव्य के नाम पर महाकवि कालिदास ने ही शिव - पार्वती का के शृंगार का काफी वर्णन किया है तो बाकी कवियों को क्या कहना ?
इस श्लोक के अन्त में ' पातु वः' मतलब अमुक देवता आपका रक्षण करे ऐसा होता है ।
तो देखते है " पातु वः " के कुछ उदाहरण।
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*श्लोक*----
" विष्णोरागमनं निशम्य , सहसा कृत्वा फणींद्रं गुणं
कौपीनं परिधाय चर्म करिणः शंभुः पुरो धावति ।
दृष्ट्वा विष्णुरथं सकम्पह्रदयः सर्पोऽपतद्भूतले
कृत्तिर्विस्खलिता , ह्रिया नतमुखो नग्नो हर पातु वः " ।।
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*अर्थ*---
( शंकर हमेशा नग्न रहता है यह प्रसिद्ध ही है । )
" विष्णु मिलने के लिए आ रहा है " यह सुनकर शंकर त्वरा से उठा और गले में जो सांप रहता है उसका ही उसने करगोटा बनाकर , और चर्म की ही लंगोटी पहनकर विष्णु के स्वागत के लिये भागा ।
किन्तु हा हन्त ! विष्णु के रथ पर जो गरुड़ रहता है , उसे देखकर सांप भयभीत होकर जमीन पर गिर पडा । ( सांप और गरुड का वैर प्रसिद्ध ही है ) सांप रूपी करगोटा गिर पडने से चर्म रूपी लंगोटी भी निकल गयी । ऐसी परिस्थिति प्राप्त होने पर शंकर ने लज्जा से मुंह निचे झुका लिया ।
लज्जा से मुंह निचे झुक गया है ऐसा नग्न शंकर आप सबकी रक्षा करे।
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*गूढ़ार्थ*----
जैसा मैने उपर लिखा है उसी तरह यह " पातु वः " प्रकरण होता है ।
इसमें कविकल्पना का आनंद हम उठा सकते है ।
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डाॅ . वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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