|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *वाणीमहत्त्व* " ( १३० )
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*श्लोक*---
" केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं , हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं , न विलेपनं , न कुसुमं , नालङ्कृता मूर्धजाः।।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् " ।।
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*अर्थ*-----
केयुरादि अलंकार , शुभ्र हार , स्नान , उटी फुले अथवा केशभूषा इसमें से किसी एक से भी मनुष्य को शोभा नही आती तो उसका खरा अलंकार यह केवल वाणी ही है । बाकी सब आभूषण नष्ट हो जायेंगे किन्तु भूषण में की भूषण वाणी हमेशा ही रहेगी ।
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*गूढ़ार्थ*-----
किसी भी अलंकार से या स्नान उटी इत्यादि से मनुष्य को शोभा नही प्राप्त होती तो वह मिलती है मधुर और नम्र वाणी से।
मनुष्य का खरा अलंकार वाग्भूषण ही है । वाग्भूषण उसकी चहुंओर कीर्ति प्रसृत करता है । और यह वाग्भूषण रूपी कीर्ति हमेशा ही उसके साथ रहेगी ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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