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" *वन्देसंस्कृतमातरम्* "
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" *लौकिकन्यायकोशः* " ( १२२ )
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" *मज्जनोन्मज्जनन्यायः* "
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तरणे अकुशलः जलप्रवाहे पतितः चेत् सः कदाचित् उन्मज्जति कदाचित् निमज्जति । तस्य स्वशरीरस्थितेः उपरि नियन्त्रणं न भवति तथा संसारसमुद्रे पतितः परमेश्वरकृपां यावत्पर्यन्तं न लभते तावत् संसारे उन्मज्जति निमज्जति च इति भावः ।
*यथा* ---- अपारसंसारसमुद्रमध्ये निमज्जतो मे शरणं किमस्ति ।
गुरो कृपालो कृपया वदैतद् विश्वेशपादाम्बुजदीर्घनौका ।।
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डाॅ . वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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