|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सामान्यनीति* " ( १०१ )
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*श्लोक*---
" यावज्जीवं सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य जीवस्य पुनरागमनं कुतः " ।।
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*अर्थ*----
यह चार्वाक दर्शन का तत्त्वज्ञान है । चार्वाक कह रहा है ---
मनुष्यने सुख से जिदंगी यापन करनी चाहिए । सुख और मौजमजा करते हुए हमेशा मस्त रहना चाहिए । घी और रोटी खानी चाहिए ।
एकबार यह देह चिता में भस्म हो गया तो फिर , उसका पुनरागमन कहाँ ? जो कुछ है वह यही देह और जीवन है । मरने के बाद स्वर्ग और नर्क किसने देखा ? इसी देह में मौज मजा कर लेनी चाहिए । वर्तमान ही सच है , भविष्य का किसने देखा ?
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*गूढ़ार्थ*----
षड् दर्शन में तीन दर्शन नास्तिक कहे गये है । और उसमें भी चार्वाक पुनर्जन्म न मानने वालों में से है । ऐसा भी कहा जाता है की इसका जनक देवगुरु बृहस्पति है । इसे *लोकायत* भी कहा जाता है । मोक्ष नाम की कोई चीज़ यह दर्शन नही मानता । नास्तिक दर्शनों में यह अग्रगण्य है । शारीरिक सुख ही इनका परम लक्ष्य है । और इस शरीर का विनाश ही इनके मत में मोक्ष है । इसलिये हमेशा *चार्वाक* दर्शन के उदाहरण के लिए प्रस्तुत श्लोक आता है ।
पर सोचने वाली यह बात है कि आज यह दर्शन पूर्ण रुप से कहीं भी उपलब्ध नही है । हमारे ऋषि-मुनियों ने कुछ सोचकर ही इस समाज की रचना की है । अगर हम देव या पुनर्जन्म न मानेंगे तो किसी को कुछ अच्छा कर्म करने की जरूरत ही नही रहेगी । जिसको जो चीज चाहिए वह दुकान से उठा लेगा जिसको जो लडकी या महिला पसंद आयेगी वह सिधे उठा ही लेगा । समाज और संस्कृति कुछ भी नही रहेगा । इसलिये आज यह दर्शन के श्लोक बहुत ही कम और वह भी दुसरे दर्शन में उपलब्ध है ।
हमारी भारतीय संस्कृति तो ----
" *वर्तितव्यरामादिवतनहिरावणादिवत्* " यह काव्यप्रकाशकार मम्मटाचार्य के कथन पर आधारित है । रावण दशग्रन्थी होने के बावजूद भी वह हमारा आदर्श नही तो एकवचनी श्रीराम हमारे
आदर्श है । शायद इसीलिए हमारी भारतीय संस्कृति विश्वप्रसिद्ध है और लोग इसका अध्ययन करना चाहते है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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