।।श्रीः।।
श्रीमते शठकोपाय नमः।
श्रीमते रामानुजाय नमः।
श्रीमद्वरवरमुनये नमः।
"श्रीरामानुजार्यदिव्याज्ञा वर्धताम् अभिवर्धताम्"
मेषार्द्रासम्भवंविष्णोर्दर्शनस्थापनोत्सुकम्।
तुण्डीरमण्डले शेषमूर्तिं रामानुजं भजे॥
हा हन्त हन्त मनसा क्रियया च वाचा
योऽहं चरमि सततं त्रिविधापचारान् ।
सोऽहं तवाप्रियकर: प्रियकृद्वदेवं कालं
नयामि यतिराज! ततोऽस्मि मूर्ख: ।।
–यतिराज विंशति ,10
हे यतिराज स्वामी ! जो (मैं) हमेशा
मनसा वाचा कर्मणा शरीर के तीनों करणों से, (त्रिविध-अपचारान्) तीन तरह के अपचारों को (निरन्तर) कर रहा हूँ वह मैं आपका अप्रिय करते हुए ऐसे समय बिता रहा हूँ मानो आपके ही प्रिय को करनेवाला हूँ। इसलिये मैं मूर्ख ही तो हूँ। हाय हाय! यह कैसी वंचना है!
स्वामिन् श्रीरामानुज! यद्यपि मन, वाक्, काय तीनों करण आपकी सेवा में लगाने ही के लिए बनाये गये हैं, तथापि अभागा मैं उनसे भगवदपचार, भागवतापचार एवं असह्यापचार तीन तरह के अपचारों को करते हुए जीता था। आपके हृदय को दु:ख पहुँचाते हुए यद्यपि मैं रहता था, फिर भी मैं ऐसा ढोंगी बन कर समय बिताता था, मानो आपकी प्रीति के कारण ही काम कर रहा हूँ। यह थी मेरी मूर्खता।
त्रिविधापचारान्
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तीन प्रकार के अपचार –
1–भगवदपचार
सर्वेश्वर को भी देवतान्तरों के समान मानना, रामकृष्ण आदि अवतारों को यह समझना की वे भी हमारे जैसे मनुष्य ही हैं, अर्चावतार में मूर्ति के उपादान द्रव्य का विचार करना आदि।
2–भागवतापचार
अहंकार से तथा अर्थ और काम से प्रेरित होकर श्रीवैष्णवों के प्रति किये जाने वाले अपराध।
3–असह्यापचार
पूर्वोक्त प्रकार से अर्थ कामों से प्रेरित न होकर, हिरण्यकशिपु की तरह भागवद्विषय एवं आचार्यापचार भी असह्यापचार कहलाता है ।
–रमेशप्रसाद शुक्ल
–जय श्रीमन्नारायण।
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