|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *प्रहेलिकाः* " ( १९१ )
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*श्लोक*---
" भूपस्योपरि सन्मानार्थं
मनुजमस्तके स्वत्राणार्थम् ।
प्रावृटकाले वर्षापातात्
ग्रीष्मे रक्षाम्यातपतापात् ।।
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*अर्थ*---
राजा के उपर सम्मान के लिए
मनुष्य के मस्तक पर रक्षण के लिए ।
वर्षा ऋतु में बारिश से और ---
ग्रीष्म में धूप से रक्षा करता हूँ ।।
तो मै कौन हूँ ?
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*गूढ़ार्थ*----
छत्रं
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*卐卐ॐॐ卐卐*
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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[29/04, 11:43 AM] +91 88974 94757: छत्रम्
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