|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *अगुरु-- अन्योक्ति* " ( १२४ )
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*श्लोक*----
" अगुरुरिति वदतु लोको गौरवमत्रैव पुनरहं मन्ये ।
दर्शितगुणैव वृत्तिर्यस्य जने जनितदाहेऽपि " ।।
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*अर्थ*----
अगुरु यह एक सुगंधित द्रव्य है । जो जलने के बाद ही उसका सुगन्ध खुलता है । अ-- गुरु ( जो श्रेष्ठ नही ) किन्तु उसका बडप्पन इसमें ही दिखता है कि--- जो उसे जलाता है उसके ही नांक में घुस कर उसे अपने अपूर्व सुगन्ध का परिचय देता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
यहाँ पर सुभाषितकार ने अ-- गुरु शब्द पर कोटि की है । अगुरु = एक सुगंधित द्रव्य । अ-- गुरु जो श्रेष्ठ नही है ।
प्रेम और कौतुक करनेवाले को तो सभी अपने गुण दिखाते ही है ।
पर अपकारकर्ता को भी जो अपने गुणों से तुष्ट करता है वही सच्चा थोर ( सज्जन ) व्यक्ति कहा जायेगा ।
खरे श्रेष्ठ या थोर व्यक्ति के अन्योक्ति का वर्णन यहाँ पर आया है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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