Monday, March 15, 2021

aguru - Sanskrit subhashitam

|| *ॐ* ||
     " *सुभाषितरसास्वादः* "
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   " *अगुरु-- अन्योक्ति* " ( १२४ )
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  *श्लोक*----
   " अगुरुरिति  वदतु  लोको गौरवमत्रैव  पुनरहं  मन्ये ।
    दर्शितगुणैव  वृत्तिर्यस्य  जने  जनितदाहेऽपि " ।।
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*अर्थ*----
 अगुरु  यह  एक  सुगंधित  द्रव्य  है ।  जो  जलने के  बाद  ही  उसका  सुगन्ध  खुलता  है ।  अ-- गुरु ( जो  श्रेष्ठ नही ) किन्तु  उसका  बडप्पन  इसमें  ही  दिखता  है  कि--- जो  उसे  जलाता है  उसके  ही  नांक में  घुस कर  उसे  अपने  अपूर्व  सुगन्ध  का  परिचय  देता  है ।
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*गूढ़ार्थ*----
  यहाँ  पर सुभाषितकार ने  अ-- गुरु  शब्द  पर  कोटि  की  है । अगुरु = एक  सुगंधित  द्रव्य । अ-- गुरु जो  श्रेष्ठ  नही  है । 
प्रेम  और  कौतुक  करनेवाले  को  तो  सभी  अपने  गुण  दिखाते  ही  है ।   
 पर  अपकारकर्ता  को  भी  जो  अपने  गुणों  से  तुष्ट  करता  है  वही  सच्चा  थोर ( सज्जन ) व्यक्ति  कहा जायेगा ।
खरे  श्रेष्ठ  या  थोर  व्यक्ति  के  अन्योक्ति  का  वर्णन  यहाँ  पर  आया है ।
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*卐卐ॐॐ卐卐*
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डाॅ. वर्षा  प्रकाश  टोणगांवकर 
पुणे  /   महाराष्ट्र 
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