|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *राजस्तुति* " ( १३५ )
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*श्लोक*---
" अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवतः शिक्षिता कुतः ?
मार्गणौघः समभ्येति गुणो याति दिगन्तराम् " ।।
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*अर्थ*----
धनुरर्धने बाण छोडा तो बाण बहुत दूर तक जाता है । लेकीन धनुष्य की रस्सी जगह पर ही रहती है । किन्तु हे राजा ! यह अपूर्व धनुर्विद्या आपने कहाँ से सिखी ? जिसमें बाण पिछे वापस आ जाता है और रस्सी दिगंत में चली जाती है ?
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*गूढ़ार्थ*---
मार्गण= बाण और याचक । गुण = धनुष्य की रस्सी और सद्गुण = गुणों की किर्ति ।
राजा को कोई कवी कह रहा है कि -- आपके दातृत्व का लक्ष्यवेध ऐसा है कि याचक बारंबार आपके पास आते है और आपकी गुणकिर्ति दिगंतर में जाती है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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