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"सुभाषित रसास्वाद"
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" *विद्याप्रशंसा*। (२०२ )
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अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात्"।।
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अर्थ---
हे सरस्वती देवते ! आपका कोष सही में अजब ही है। इस कोष से जितना धन खर्च करेंगे उतना ही आपका खजाना बढ़ेगा और इस धन का संचय करेंगे तो यह नष्ट होगा ।
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गुढार्थ-- ज्ञानरुप धन देने से हमेशा ही देनेवाले के ज्ञान में वृद्धि होती है । और अगर ज्ञानरुपी धन ना बांटे तो और अपने पास ही संभालकर रखे तो उसका विस्मरण होकर नाश होता है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे/ महाराष्ट्र
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