|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *व्याकरण--प्रशंसा* " ( २२२ )
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*श्लोक*-----
" यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च ।
यस्याहं च द्वितीयाच , द्वितीया स्यामहं कथम् ? ।। "
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*अर्थ*----
जिसको ' अहं ' द्वितीया का रूप लगता है , और विहाय यह चतुर्थी का रूप लगता है और विहस्य षष्ठी का रूप लगता है ।
उसकी ' द्वितीया ' मैं कैसे होऊं ?
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*गूढ़ार्थ*-----
" एक व्याकरण में कच्चा तरुण था , उसे संस्कृत में द्वितीया का प्रत्यय अम् , चतुर्थी का य और षष्ठी का स्य प्रत्यय होता है , ऐसा लगता था । ' अहम् ' की प्रथमा विभक्ति होने के बाबजूद उसने उसे द्वितीया कहा । और ' विहाय ' ' छोड के ' और ' विहस्य ' मतलब हंस के ऐसे क्रियाविशेषण अव्यये होने के बावजूद उसने उसे 'चतुर्थी 'और ' षष्ठी ' का रूप माना । "
ऐसे तरुण की पत्नी होना एक तरुणी ने स्विकार नही किया ।
उस तरुणी ने कहा -- ' ऐसे व्याकरण में कच्चे तरुण की ' द्वितीया ' मतलब ' पत्नी ' मैं कैसे होऊं ?
यहाँ पर " मोदकै सिञ्च माम् " की याद आ गयी न ?
मा+ उदकैः । मोदकैः।
' मा ' मतलब नही और ' उदक ' मतलब पानी ।
" मेरे उपर पानी का सिञ्चन मत करो "!
इतना छोटासा अर्थ है इस वाक्य का । लेकीन राजा ने रानी के लिये एक ताट भर मोदक मंगाये । सोचो रानी कितनी हंसी होगी ?
इत्यलम् ।
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*डाॅ .वर्षा प्रकाश टोणगांवकर*
पुणे / महाराष्ट्र
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