|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *पातु वः* " ( १७०)
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*श्लोक*---
" कस्तूरीयन्ति भाले , तदनु नयनयोः कज्जलयन्ति ; कर्णप्रान्ते नीलोत्पलीयन्त्युरसि मरकतालंकृतीयन्ति देव्याः ।
रोमालीयन्ति नाभेरुपरि हरिमणीमेखलीयन्ति मध्ये कल्याणं कुर्युरेते त्रिजगति पुरभि त्कण्ठभासां विलासाः " ।।
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*अर्थ*---
( शिवकण्ठ की काली , हरी और निली छाया पार्वती के देह के उपर पडने के बाद वह क्या क्या आभास उत्पन्न कर रही है इसका वर्णन )
वह काली छाया पार्वती के मस्तक पर कस्तूरी का आभास निर्माण कर रही है ; तो नयनों में काजल लगाया है ऐसी दिख रही है ।
कानों पर नीलकमल पहने हुए है ऐसा लग रहा है । ह्रदयपर पाचू का हार पहना है ऐसा भास हो रहा है तो नाभीपर रोमाली का भास और कमर के बाजू में पाचू के रत्नमेखला का आभास हो रहा है ।
ऐसी शंकरकण्ठच्छायाविलास त्रिजगत का कल्याण करे !
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*गूढ़ार्थ*---
कितना सुन्दर सुभाषितकार ने हमे शिव - पार्वती का सारूप्य बताया है न ? शिव - शक्ति के अर्थ का एक पहलू यह भी हो सकता है ।
गौरवर्णीय पार्वती के देह पर शिव के कण्ठ की छाया पडने के बाद होनेवाला आभास बहुत ही मनोरम तरीके से हमे सुभाषितकार ने बताया है । और ऐसी आभास देनेवाली कण्ठच्छाया त्रिजगत का कल्याण करे ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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