|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सुवाक्यनीति* " ( ८४ )
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*श्लोक*----
" केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।।
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*अर्थ*----
बाजुबंद पुरुष को शोभित नही करते और न ही चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान , न स्नान , न चन्दन , न फूल और न सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते है । केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई एक वाणी ही उसकी सुन्दर प्रकार से शोभा बढ़ाती है ।
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*गूढार्थ*-----
सुभाषितकार ने बहुत ही सुन्दर तरीके से विद्वान की व्याख्या बतायी है । की विद्वान के साधारण आभूषण नष्ट हो जाते है , वाणी ही उसका सनातन आभूषण है ।
यहाँ पर वाणी = मीठी और मधुर वाणी । ज्ञानयुक्त संयत वाणी।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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