|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *जीवननीति* " ( १३० )
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*श्लोक*----
" क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः
क्षणं वित्तैर्हीनः क्षणमपि च संपूर्णविभवः ।
जराजीर्णैरङ्गैर्नट इव वलीमण्डिततनु---
र्नरः संसारान्ते विशति यमधानीजवनिकाम् " ।।
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*अर्थ*---
मनुष्य का जीवन नाटक है और मनुष्य नट । वह एक पल में देखो तो बाल ; एक क्षण में रंगेल मनुष्य ; अगले ही पल भिकारी , तो अगले ही पल धनसंपन्न ! और आखिर में झुरियो वाला वृद्ध और उसके भी आगे बहुत ज्यादा थका हुआ बूढ़ा बन जाता है ।
और इस तरह से इस संसाररूपी नाटक के अन्त में वह यमपुरी के पर्दे के आड चला जाता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
जीवनरूपी नाटक का कितना सत्य और यथार्थ वर्णन सुभाषितकार ने किया है न ? आखिर हम सब इस रंगमञ्च की कठपुतलियां तो है जिसकी डोर किसी और के हाथ में होती है ।
लेकीन फिर भी हम कितने अहंकार और गुरूर से जीवन जिते है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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