|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *मोक्षनीति* " ( १३१ )
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*श्लोक*---
" यदि संन्यसतः सिद्धिं राजन्किश्चिदवाप्नुयात् ।
पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः " ।।
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*अर्थ*---
यदि केवल संन्यास लेने से ( कर्मत्याग करने से ) हे राजन ! किसिको मोक्ष नही मिलता । अगर ऐसा होता तो पर्वत और पेड़ों को बहुत पहले ही मोक्ष मिल चुका होता ।
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*गूढ़ार्थ*---
संन्यास और कर्मयोग दोनो ही श्रेष्ठ है किन्तु उसमें भी कर्मयोग ही श्रेष्ठ माना गया है । कर्मयोग से बचने की बजाय उसे स्वीकार करो । अन्यथा तो वृक्ष और पर्वतों का तप सर्वश्रेष्ठ माना गया है किन्तु तो भी उन्हे मोक्ष नही मिलता यह उदाहरण से सुभाषितकार ने कर्म की श्रेष्ठता कही है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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