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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *लक्षणनीति* " (६५ )
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*श्लोक*----
" मधुपा मधुं , वृक्षफलं, तृणे धान्यं ग्रहणम् ।
अनिवार्यं , साधयेत् विनाक्रौर्य॔ दत्वा रक्षणक्रमः "।।
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*अर्थ*----
मधमाशी से मध , वृक्ष से फल और तृण से धान्य यह लेना ही पडता है । पर यह सब लेते समय उनको संरक्षण देकर और क्रूरता ना करते हुए लेना श्रेयस्कर होता है ।
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*गूढ़ार्थ*-----
' जीवो जीवस्य जीवनम् ' यही सृष्टि का न्याय है । प्रत्येक मनुष्य को जीने के लिए अन्न लगता ही है , और उसके लिए प्राणिसृष्टि वनस्पतीसृष्टि पे मुख्यतः अवलंबून है । जो अनिवार्य है वह लेना ही पडता है यह निर्विवाद है । किन्तु वह लेते वक्त जिनसे हम ले रहे है उनका संरक्षण करना आवश्यक है उनसे खिंचके या बल से नही लेना चाहिए । सुभाषितकार ने सृष्टि का ऋण मानने का पाठ हमे पढाया है । पर्यावरण की रक्षा तो आजकल अति आवश्यक है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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