|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *तत्त्वज्ञाननीति* " ( ९६)
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*श्लोक*-----
" आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्य शृङ्खला ।
यया बद्धाः प्रधावन्ति , मुक्ताः तिष्ठन्ति पंगुवत् " ।।
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*अर्थ*----
आशा नाम की मनुष्यों के लिये आश्चर्यकारक शृखंला है ।
आशा से बंधा हुआ व्यक्ति भागता है और उससे जो मुक्त हुआ वह पंगुवत खडे ही रहता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
यहाँ पर सुभाषितकार ने जगत का एक वर्म बताया है ।
मनुष्य हमेशा आशापर ही जीता है । अपनी आशा -- आकांक्षा पूरी करने के लिए ही वह जीता है । इसलिये उसकी भागादौडी चलती है ।
ऋषी--मुनी , योगी , संत यह सब लोग आशा-- आकांक्षा के पार हो चुके होते है उनको आशापाश रोक नही सकता इसलिए वह स्थिर रहते है ।
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा ही गया है की---
" कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन "।
मतलब मनुष्य का कर्म और कर्तव्य पर अधिकार होता है उसके फलपर नही । इस विचारसरणी से हम आशापाश कम कर सकते है।
अलिप्तता आकर मनुष्य शांत और स्थिर रहता है ।
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डाॅ.वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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