Tuesday, May 14, 2019

Vaiseshika darshan

 || *ॐ*||
      " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ५२ )
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" *वैशेषिक दर्शन* "(१)
वैशेषिक दर्शन का न्यायदर्शन से अत्यधिक मात्रा में साम्य होने के कारण, दोनों का निर्देश एक साथ ही होता है। इस दर्शन के प्रवर्तक का नाम कणाद है। कणाद का अर्थ "कण खानेवाला",होने से इस का नामनिर्देश उसी अर्थ के कणभक्ष,कणभुक्,इन नामों से भी होता है। कणाद के वैशेषिक दर्शन का औलुक्य दर्शन भी अपर नाम है। इस कारण कणाद का वास्तव नाम कुछ लोगों के मतानुसार उलुकि माना जाता है। कणाद कृत वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल ई.द्वितीय से चतुर्थ शती के बीच माना जाता है। अतः इस दर्शन को न्ययपूर्व मानते है।इस दर्शन ग्रन्थ के दस अध्यायों में ३७० सूत्र है। प्रत्येक अध्याय के अन्तर्गत दो आह्निक नामक विभाग है। वैशेषिक सूत्रों पर "रावणभाष्य" नामक भाष्य का प्राचीन ग्रन्थों में निर्देश मिलता है, किन्तु वह अभी अनुपलब्ध है। इस का प्रशस्तपादकृत भाष्य "पदार्थधर्मसंग्रह" नाम से सुप्रसिद्ध है। शिवादित्य की सप्तपदार्थों, लौगाक्षिभास्कर की तर्ककौमुदी ,वल्लभान्ययचार्य की न्यायलीलावती एवं विश्वनाथ पंचानन कृत भाषापरिच्छेद विशेष प्रचलित है।
कलसे वैशेषिक परिभाषा।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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|| *ॐ*||
      " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ५३ )
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" *वैशेषिक दर्शन* "(२)
" *वैशेषिक परिभाषा*"
पदार्थ: - अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व इन धर्मों से युक्त संसार की सभी वस्तुएँ ।
सप्त पदार्थ:- द्रव्य, गुण, कर्म ,सामान्य ,विशेष ,समवाय और अभाव। समग्र सृष्टि के पदार्थों के ये सात ही प्रकार होते है।(प्रथम द्रव्य)
नव द्रव्य:-पृथ्वी, आप ,तेज ,वायु ,आकाश, काल, दिक् ,आत्मा और मन। इन में पृथ्वी, आप, तेज ,वायु के परमाणु नित्य होते है,और इनमें निर्मित पदार्थ अनित्य होते है। पृथ्वी में गंधादि पांचो गुण, आप (जल) में रसादि चार गुण,तेज में रूपादि तीन गुण,वायु में स्पर्श शब्द दो गुण और आकाश में केवल शब्द गुण ही होता है,वह सर्वव्यापी और अपरिमित है। 
आत्मा:- ज्ञेय, नित्य, शरीर से पृथक्, इन्द्रियों का अधिष्ठाता,विभु और मानसप्रत्यक्ष का विषय है। आत्मा के दो भेद--जीवात्मा और परमात्मा। जीवात्मा प्रति शरीर में पृथक होता है। इस का ज्ञान सुखदुःख के अनुभव से होता है। इच्छा, द्वेष,बुद्धि,प्रयत्न,धर्माधर्म, संस्कार इत्यादि आत्मगुण है। परमात्मा एक और जगत का कर्ता है।
मन:- अणुपरिमाण। प्रतिशरीर भिन्न। यह जीवात्मा के सुखदुःखादि अनुभव का तथा ऐन्द्रिय ज्ञान का साधन है। 
पदार्थ के मूल गुणों का नाश होकर ,उनमें नये गुण की निर्मिति को "पाक" कहते है। इस उपपत्ति के कारण वैशेषिकों को "पीलुपाकवादी" कहते है। पीलुपाक याने अणुओं का पाक।   
इस से विपरीत नैय्यायिकों की उपपत्ति में संपूर्ण वस्तु का पाक माना जाता है , अतः उन्हे दार्शनिक परिवार में "पिठर-पाकवादी" कहते है।
क्रमशः आगे.........
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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