Tuesday, May 28, 2019

Mimamsa darshan

|| *ॐ*||
   " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ७१ )
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" *मीमांसा दर्शन* "(२)
" *अथातो धर्मजिज्ञासा* "-- यह मीमांसा दर्शन  का प्रथम सूत्र है। अर्थात् धर्म ही इस का मुख्य प्रतिपाद्य है जिसका निर्देश कर्म,यज्ञ, होम आदि अनेक शब्दों से होता है। जैमिनिसूत्रों के बारह अध्याय में कुल ५६ पाद (प्रत्येक अध्याय में ४ पाद। केवल अध्याय ३ और ४ में ८ पाद है) और लगभग एक हजार अधिकरणों में इस मुख्य विषय का प्रतिपादन हुआ है। इसके निरूपण के प्रसंग में सैकडों "न्याय और सिद्धांत" स्थापित हुए है जिनका उपयोग प्रायः सभी शास्त्रों (विशेषतः धर्म शास्त्र) ने किया है। अधिकरण में अनेक सूत्र और अन्य गुणसूत्र होते है। विषय,संशय, पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और प्रयोजन तथा संगति नामक छह अवयव अधिकरण के अन्तर्गत होते है।
मीमांसासूत्रों के "द्वादशलक्षणी" नामक प्रथम खण्ड के प्रथम अध्याय में धर्म का विवेचन हुआ है।"चोदना-लक्षणोऽर्थो धर्मः" यह इस शास्त्र के अनुसार धर्म का लक्षण है। यहा पर विधि, अर्थवाद, मन्त्र और नामधेय इन वेदों चार भागों को प्रमाण माना जाता है। इसी तरह निषिद्ध कर्म भी बताये गये है। 
मीमांसाशास्त्र में "भावना" एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द प्रचलित है जिसका अर्थ है होने वाले कर्म की उत्पत्ति के अनुकुल प्रयोजक में रहने वाला विशेष व्यापार। यह व्यापार अपौरुषेय होने के कारण "यजेत" इत्यादि शब्दों में ही रहता है। इस लिए  इसे "शाब्दी" भावना कहते है। शाब्दी भावना को तीन अंशो की अपेक्षा होती है:--'(१) साध्य (२)साधन (३) इतिकर्तव्यता। पुरुष में स्वर्ग की इच्छा से उत्पन्न यागविषय जो प्रयत्न है वही है "आर्थी भावना"। आख्यातत्व  द्वारा इस का अभिधान किया जाता है क्यों कि "यजेत" इस आख्यात के सुनने पर "याग में यत्न करे " ऐसी प्रतीति होती है। यही प्रयत्न आख्यात का वाच्य है। "अर्थ" शब्द का अर्थ है फल। फल से संबंधित होने के कारण इस द्वितीय भावना को "आर्थी भावना" कहा गया है।
क्रमशः आगे........
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डाॅ.वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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