Friday, May 10, 2019

A folk story in sanskrit

च्यवनः(टपका/टपकउआ)(लोककथा )

कस्मिंश्चत् कानने काचिद्
वृद्धैका निर्बला पुरा।
जीर्णञ्च कुटिरं तस्याः
जीवति सा निराश्रिता।।(1)

किसी वन में कोई निर्बल बुढ़िया रहती थी ।उस की झोंपड़ी टूटी फूटी थी और वह बेसहारा थी ।

वर्षाकाले कदाचिच्च 
मेघो वर्षति गर्जया।
शय्यास्थिता हि वृद्धा सा
प्रलपति भयाकुला।।(2)

एक बार वर्षा ऋतु मे बादल गर्जना के साथ बरस रहे थे ।बिस्तर पर लेटी वह बार-बार कह रही थी -

नाहं बिभेमि सिंहाद्वा
नाहं व्याघ्राद् गजादपि।
केवलं च्यवनाद्भीतिः
वर्षर्तौ रजनीगते।।(3)

न तो मैं शेर से डरती हूं और न बाघ अथवा हाथी से ।मैं तो केवल वर्षा ऋतु मे रात के समय टपकउवे (टपका )से डरती हूं।

तदैव कोऽपि पञ्चास्यः
जलार्द्रो व्याकुलो ननु।
पृष्ठे च पर्णशालायाः
वृक्षाधः शरणं गतः।।(4)

तभी पानी से भीगा हुआ व्याकुल कोई शेर वहाँ आया और कुटिया के पीछे वृक्ष के नीचे शरण ली ।

श्रुत्वा वचांसि वृद्धायाः
वनराजो भयाकुलः।
अस्मिंश्च कानने कोऽपि
मत्तोऽपि बलवत्तरः।।(5)

उस बुढ़िया की बात सुनकर शेर व्याकुल हो गया कि इस वन मे मुझ से भी बलवान कोई है।


तस्यामेव निशायाञ्च
कुम्भकारस्य गर्दभः।
पथभ्रष्टः चरन् मूढः
ग्रामाद्बहिर्वनं गतः।।(6)

उसी रात एक कुम्हार का गधा चरते हुए रास्ता भूलकर गाँव से बाहर वन मे चला गया ।

अन्विष्यन् कुम्भकारस्तं
रासभं काननं गतः।
वृद्धायाः कुटिरं प्राप्य
किञ्चित्कालं स तिष्ठति।।(7)

उस गधे को ढूंढते हुए कुम्हार वन मे चला गया और बुढ़िया की कुटिया के पास जाकर कुछ देर तक खड़ा रहा ।

विद्युल्लताप्रकाशे स
जन्तुमेकं ददर्श ह।
मत्वेति रासभो नूनं
पृष्ठारूढो बभूव सः।।(8)
बिजली की चमक में उसने एक प्राणी को देखा।यह गधा ही है, ऐसा मानकर उसकी पीठ पर बैठ गया ।

लगुडस्य प्रहारेण
तेन सिंहः प्रताडितः।
च्यवनाक्रमणं नूनं
भीतः सिंहः पलायितः।।(9)
उसने डण्डे के प्रहार से उसे पीटना शुरू कर दिया ।शेर भी यह मानकर कि टपकउवे ने हमला कर दिया है, घबराकर भाग गया ।


रासभस्य जवं दृष्ट्वा
कुम्भकारो हतप्रभः।
धावन्तं सः वनं सिंहं
ग्रामं नेतुं चिकीर्षति।।(10)
गधे की चाल देखकर कुम्हार हैरान हो गया और वन की ओर जाते हुए गधे (शेर)को गांव की ओर ले जाना चाहता था ।


प्रातःकाले यदा ज्योतिः
पूर्वस्यां दिशि जायते।
पपात मूर्च्छितो भूमौ
दृष्ट्वा सिंहं वनाधिपम्।।(11)

प्रातःकाल जब पूर्व दिशा से कुछ प्रकाश हुआ तो शेर को देखकर कुम्हार मूर्च्छित हो गया ।

सोऽपि सिंहः तदा भीतः
जगाम गहनं वनम्।
किमिदं पशवः सर्वे
साश्चर्याः वानरादयः।।(12)
डरा हुआ वह शेर भी वन में भाग गया ।ये क्या हो रहा है, यह देखकर वानर आदि सभी पशु हैरान हो गए ।

जम्बुकेन तदा पृष्टो
जगाद वनकेसरी।
गच्छ गच्छ शृगालस्त्वं
शीघ्रमेव वनान्तरम्।।(13)
गीदड़ के पूछने पर शेर बोला -हे गीदड़ ! तुम भी शीघ्र किसी और वन में भाग जाओ।

यतो हि च्यवनो नाम 
शक्तिमान् वनाधिपः।
आगतः कानने वीरः
येनाहतो व्रजाम्यहम्।(14)
क्योंकि टपकउवे नाम का शक्तिशाली वीर वनराज इस वन मे आ गया है जिसके द्वारा पीटा गया मै भागा जा रहा हूं।

विहस्य प्रोक्तवान् धूर्तः
सिंहं तं जम्बुकस्तदा।
सर्वैः तत्रैव गन्तव्यं
यत्र दुष्टः स राजते।।(15)
तब वह धूर्त गीदड़ हंसकर बोला-हम सभी को एक बार वहाँ जाना चाहिए जहां वह दुष्ट है।


पूर्वेषां सम्पदा नूनं
वनमेतद्धि सुन्दरम्।
रक्षणाय स्वराज्यस्य 
गच्छन्तु सर्वजीविनः।।(16)
क्योंकि यह सुन्दर वन हमारे पूर्वजों की सम्पत्ति है , अतः सभी प्राणी इसकी रक्षा के लिए चलो।

पुरस्कृत्य शृगालं तं
सर्वे ते पशुपक्षिणः।
गतास्तत्र हि यद्देशे
सिंहो मुक्तो वनस्थले।।(17)
तब वे सभी पशु पक्षी उस गीदड़ को आगे कर के उस स्थान पर पहुँचे जहां शेर को उस टपकउवे ने छोड़ा था ।

गहने कानने सोऽपि
कुम्भकारो भयातुरः।
सभयं वृक्षमारुह्य
सिंहं पश्यति दूरतः।।(18)
घने वन में घबराया हुआ वह कुम्हार भी पेड़ पर चढकर दूर से उस शेर को देखता है ।

तत्रागत्य शृगालश्च
पश्यति सर्वतो वनम्।
अन्वेषणं कृतं सर्वैः
न किञ्चिदपि दृश्यते।।(19)
वन मे उस स्थान पर आ कर वह गीदड़ चारों ओर देखता है ।बाकी सभी खोजबीन करते हैं परन्तु वहां कुछ भी दिखाई नही देता ।

न किञ्चिदिति विश्वस्तः
सिंहश्चकार गर्जनम्।
तच्छ्रुत्वा कम्पितो भीतः
कुम्भकारः पपात ह।।(20)
यहां कुछ नही है, ऐसा विश्वास होने पर शेर जोर से गर्जना करता है ।उसकी गर्जना सुनकर भय से कांपता हुआ कुम्हार पेड़ से नीचे गिर गया ।

तस्य पादप्रहारेण
शृगालस्य श्रुतौ व्रणः।
ततः पलायिताः सर्वे
निन्दन्तः मृगधूर्तकम्।।(21)
उस कुम्हार के पैर के प्रहार से गीदड़ के कान मे घाव हो गया ।सभी वहाँ से गीदड़ की निन्दा करते हुए भाग गए ।

तदा सिंहं मृगेन्द्रं स
धावन् वदति वञ्चकः।
न हि स च्यवनः कोऽपि
नूनं स श्रुतिकर्तकः।।(22)
तब दौड़ते हुए वह गीदड़ शेर से बोला--वह कोई टपकउआ नही है, वह तो कान पटउवा है ।

ततश्च वानरः कोऽपि
समागत्य वनाधिपम्।
जगाद वृक्षशाखासु
धूर्तमन्वेषयाम्यहम्।।(23)
इसके बाद कोई बन्दर शेर के पास आकर बोला--मैं पेड़ की प्रत्येक शाखा पर चढकर उस दुष्ट को ढूंढ निकालूंगा।

आहतः रक्षणार्थं स
प्रविष्टो गह्वरे तदा।
आवृत्तः कुम्भकारेण
पाषाणेन च तन्मुखम्।।(24)
इधर घायल हुआ वह कुम्हार एक गड्ढे मे छिप जाता है और उसके मुख को एक पत्थर से ढक लेता है ।

इतस्ततः भ्रमन् याति
तत्रैव प्रस्तरे कपिः।
लूमस्य कुम्भकारेण 
ग्रहणं बलपूर्वकम्।।(25)
इधर-उधर घूमते हुए वह चञ्चल बन्दर उसी पत्थर पर बैठ जाता है ।वह कुम्हार उसकी लटकी हुई पूंछ को जोर से पकड़ लेता है ।

दृष्ट्वा मुखाकृतिं तस्य
सर्वे ततः पलायिताः।
येन केन प्रकारेण 
मुक्तो शाखामृगः कपिः।।(26)
उसकी (दर्दभरी)मुखाकृति को देखकर सभी वहां से भाग गए ।जैसे कैसे वह बन्दर भी छूट कर भाग गया ।

ततश्च सोऽतिवेगेन
कूर्दति चञ्चलो बली।
वदति मर्कटो धावन्
सर्वे चानृतवादिनः।।(27)
इसके बाद वह चञ्चल बन्दर तेजी से उछलता है और भागते हुए शेर से कहता है कि तुम सब झूठे हो ।

न हि स च्यवनः कोऽपि
न च सः श्रुतिकर्तकः।
लाङ्गूलोत्पाटको नूनं
मायावी खरवञ्चकः।।(28)
न तो वह टपकउआ है और न ही कोई कान पटउवा है ।वह मायावी तो पूंछ पटउवा है ।

सिंहादयस्ततः सर्वे
पलायिता वनान्तरम्।
सुखेन कुम्भकारः सः
स्वकीयं सदनं गतः।।(29)
इसके बाद शेर आदि सभी जानवर उस जंगल को छोड़कर भाग गए और वह कुम्हार सुखपूर्वक अपने घर चला गया ।

बाल्यकाले श्रुता या च
लोककथा पितुर्मुखात्।
अनुवादः कृतस्तस्याः
कृपया पितृपादयोः।।(30)
यह कहानी बचपन मे मैने अपने पिता के मुख से सुनी थी ।उन्हीं के चरणों की कृपा से इसका संस्कृत पद्यानुवाद किया है ।

---मार्कण्डेयो रवीन्द्रः

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