Tuesday, February 19, 2019

Sanskrit Ganga - kathopanishad

|| *ॐ* ||
" *संस्कृत-गङ्गा* " ( १८ ) 
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" *कठोपनिषद्* "
कठोपनिषद् कृष्णयजुर्वेद की कठ शाखा का उपनिषद् है।इसमें दो अध्याय है और प्रत्येक अध्याय में तीन बिल्लियाँ है।इसमे यम-नचिकेता के आख्यानसे लौकिक जीवन की क्षणभड़्गुरता तथा ब्रह्म की शाश्वतता का सुन्दर विवेचन किया गया है।प्रेय तथा श्रेय की परस्पर भिन्नता तथा प्रेय के त्याग से ही श्रेय--परमात्मा की प्राप्ति का स्पष्ट विवेचन हुआ है साथ ही परमतत्व को स्पष्टतया लक्षित किया गया है।इस उपनिषद् में परमात्मज्ञान के साथ आतिथ्य के महत्व को प्रतिपादित किया गया है।समस्त वेद जिस परम पद का प्रतिपादन करते है,सम्पूर्ण तप का जो साध्य है वह परमपद "ओम" है। इस प्रकार यमराज ने ओड़्कार को ब्रह्म का प्रतीक बताकर इस (ब्रह्म) के स्वरूप का विशद एवं सुन्दर  प्रतिष्ठापन कठोपनिषद् में किया गया है।परमात्मा अणु से भी अणीयान् तथा महत् से भी महीयान् है।यह आत्मा (परमतत्व ) शरीररूपी रथ का स्वामी है।मानव मात्र का अन्तिम लक्ष्य यही आत्मा है।यह आत्मा सर्वव्यापक है ,वायु के समान सर्वत्र प्रविष्ट है तथा सूर्य के समान प्रकाशक है।वह स्वप्रकाश परब्रह्म ही सभी को प्रकाशित करता है----"तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" (कठो•-२-२-१५ का उत्तरार्द्ध )
" *प्रश्नोपनिषद्* "
यह उपनिषद् अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा के ब्राह्मण के अन्तर्गत है।इसका नामकरण उपनिषद् में छः ऋषियों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के प्राधान्य पर किया गया है।इस उपनिषद् में भरद्वाज पुत्र सुकेशा, शिवि के पुत्र सत्यकाम,गार्ग्य-सौर्यायणी, कोशलदेशीय आश्वालायन, विदर्भ के भार्गव तथा कत्य ऋषि के प्रपौत्र कबन्धी ने पिप्पलाद ऋषि से परब्रह्म  के ज्ञान की जिज्ञासा से श्रद्धावनत होकर अलग- अलग प्रश्न किये। इसका  का प्रतिपाद्य इन्ही छः प्रश्नों का उत्तर है।प्रथम प्रश्न में १६ मन्त्र, द्वितीय में १३ ,तृतीय में १२,चतुर्थ में ११,पञ्चम में ७ तथा षष्ठ में ८ मन्त्र है। उपनिषद् के प्रथम--भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रज्ञाः प्रजायन्त इति (कबन्धी) प्रश्न के उत्तर में ऋषि पिप्पलाद ने प्रजापति के द्वारा तप के पश्चात् उत्पन्न रयि एवं प्राण को ही सृष्टि का कारण निरूपित किया है।भार्गव के तीन प्रश्नों के उत्तर में पिप्पलाद ने पञ्चमहाभूत, इन्द्रियाॅ,  अन्तःकरण  एवं  प्राण के द्वारा शरीरधारण की स्थिति तथा इनमें प्राण की सर्वश्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है।आश्वालायन के छः प्रश्नों के उत्तर में महर्षि पिप्पलाद ने प्राणापन, उदान आदि वायु की व्याख्या कर इन सभी की उत्पत्ति परब्रह्म से निरूपित की है।गार्ग्य द्वारा जीवात्मा एवं परमात्मा के स्वरूप ज्ञान के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि उदात्त वायु ही मनुष्य को कर्म के फलस्वरूप (ह्रदयगुहा) में पहुँचाता है।सत्यकाम के प्रश्न का उत्तर देते हुए पिप्पलाद ने ॐकार को ही ब्रह्म के रूप में निर्देशित किया है।अन्तिम प्रश्न--'सोलह कलाओं वाले पुरुष के स्वरूप 'के उत्तर में ऋषि पिप्पलाद ने सृष्टि के क्रमिक विकास का वर्णन किया है।ब्रह्म से प्राण ,श्रद्धा,पञ्चमहाभूत, इन्द्रिय, अन्न,वीर्य, तप,मन्त्र, कर्म लोक--ये सभी सृष्टि का निर्माण कर अन्त में ब्रह्म में ही विलीन हो जाते है।इस प्रकार महर्षि पिप्पलाद ने ब्रह्म विषयक उपदेश का उपसंहार --'नातः परमस्तीति' से करके ब्रह्मत्व का अत्यन्त वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है।
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   डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे /  महाराष्ट्र
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