|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
--------------------------------------------------------------------------------------
" *संकीर्णसुभाषित* " ( २७९)
---------------------------------------------------------------------------------------
*श्लोक*---
" दोषाकरोऽपि कुटिलोऽपि कलङ्कितोऽपि
मित्रावसानसमये विहितोदयोऽपि ।
चन्द्रस्तथाऽपि हरवल्लभतामुपैति
नैवाश्रितेषु गुणदोषविचारणा स्यात् ।। "
--------------------------------------------------------------------------------------
*श्लोक*----
चन्द्र यह दोषकर , ( रात करनेवाला ; दुसरा अर्थ दोषों की खान ) कुटिल , ( चन्द्रकोर वक्र रहती है ; दुसरा अर्थ वक्र स्वभाववाला )
कलंकित , ( जिसके उपर दाग है ; जिसके चरित्र पर दाग है ),
मित्र के, ( सूर्य पर ; दुसरा अर्थ स्नेह पर ) अवसानसमयी , ( अस्त के समय ; दुसरा अर्थ संकट काल या मृत्यु का समय ) ।
इस तरह से होकर भी चन्द्र शंकर को प्रिय ही है क्योंकि थोर लोग एकबार जिसका स्वीकार कर लेते उसके कभी गुणदोष नही देखते ।
-------------------------------------------------------------------------------------
*गूढ़ार्थ*----
शंकर और चन्द्र के रूपक से सुभाषितकार ने हमे अच्छे तथा सज्जन मित्र के लक्षण बताये है । मित्र का बर्ताव कैसा भी हो लेकीन सज्जन और थोर लोग अपनी मित्रता निभाते ही है वह गुणदोष नही देखते । आजकल ऐसे मित्र भाग्य से ही मिलते है ।
---------------------------------------------------------------------------------------
*卐卐ॐॐ卐卐*
-------------------------
डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
-------------------------------
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
No comments:
Post a Comment