|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सज्जनप्रशंसा* " ( २३९ )
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*श्लोक*----
" क्षारो वारिनिधिः कलङ्ककलुषश्चन्द्रो रविस्तापकृत्
पर्जन्यश्चपलाश्रयोऽभ्रपटलादृश्यः सुवर्णाचलः ।
शून्यं व्योम रसा द्विजिह्वविधृता स्वर्धामधेनुः पशुः
काष्ठं कल्पतरुर्दृषत्सुरमणिस्तत्केन साम्यं सताम् ।। "
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*अर्थ*----
सज्जनों के साथ बराबरी कर सकेंगे ऐसी एक भी वस्तु इस जग में है क्या ? उनको समुद्र कहेंगे तो वह खारा है । चन्द्र कहेंगे तो उसपर दाग है । सूर्य कहेंगे तो वह तीव्र धूप के कारण ताप देता है । उनको मेघ की उपमा देंगे तो उसमें चञ्चल ऐसी बिजली आश्रय से रहती है। सज्जनों की तुलना मेरूपर्वत से करेंगे तो वह मेघसमूह के कारण अदृश्य है । आकाश कहेंगे तो वहाँ शून्य के अलावा क्या है ? भूमी कहेंगे तो उसे सापने ( शेषनाग ) ने धारण कर रखा है । स्वर्ग के कामधेनु से उनकी तुलना करेंगे तो आख़िर वह पशु ही है ! कल्पवृक्ष कहेंगे तो वह भी आखिर लकड़ी ही है ना ! चिन्तामणी बोलेंगे तो वह भी आखिर दगड ही ठहरा !
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*गूढ़ार्थ*----
उपर सब का क्या मतितार्थ निकलता है ? सुभाषितकार हमे क्या कहना चाह रहा है ? तो सुभाषितकार हमे यह कह रहा है की --
सज्जन लोगों की तुलना विश्व के किसी चीज़ से नही हो सकती ।
सज्जन अपने आप में ही श्रेष्ठ होते है । एक भी वस्तु की उपमा सज्जन को नही दे सकते ।
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डाॅ . वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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