|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *तृष्णा* " ( २०३ )
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*श्लोक*---
" लोभाविष्टो नरो वित्तं वीक्षते नैव चापदम् ।
दुग्धं पश्यति मार्जारो यथा न लगुडाहतिम् ।। "
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*अर्थ*-----
लोभी मनुष्य केवल वित्त देखता है , उसको प्राप्त करते समय आनेवाले संकटों को नही देखता । जैसे बिल्ली दूध को देखती है पर उसके साथ मिलनेवाली छडी को नही देखती ।
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*गूढ़ार्थ*-----
कितने लोभी व्यक्ति आज हमे देखने को मिलते है , जो धन के पिछे दीवाने की तरह भागते है और उस वक्त वह आनेवाले संकट या परेशानी कुछ भी नही देखते है । ऐसे लोगों की तुलना सुभाषितकार ने बिल्ली से की है । सभी प्राणियों में बिल्ली अकेली ही लोभी और लालची प्राणी है जो दूध पिते समय संकट को नही देखती है । डंडा खाकर भी वह दूध पिना नही छोडती ।
आजकल समाज में ऐसे लोग बहुत दिखते है यह मेरा निरिक्षण है ।
शायद इसे ही कलयुग कहते है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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