Monday, April 9, 2018

Gayathri & Vyaahrutis - Sanskrit

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Courtesy: Sri. Nityananda Mishra

"भव (शिव) ने उनसे (पार्वती से) सत्य ही कहा, 'तुम एकनारीव्रत पति प्राप्त करो'। निश्चित ही, ईश्वरों (महात्माओं) की व्याहृतियाँ (उक्तियाँ या वचन) संसार में विपरीत अर्थ का पोषण नहीं करती हैं।" 

कालिदास का भाव यह है कि महात्माओं के वचन संसार में मिथ्या सिद्ध नहीं होते हैं। 

लेकिन व्याहृति का एक विशेष शाब्दिक अर्थ भी है। 'आहृति' शब्द में भी "जो बोली जाए" यह अर्थ संभव है, क्योंकि आ + √हृ धातु का भी बोलना अर्थ है। 'भागवत पुराण के अष्टम स्कन्ध में तामस नामक मन्वन्तर में भगवान् के अवतार का वर्णन करते हुए शुकदेव परीक्षित् से कहते हैं "भगवान् ... हरिरित्याहृतः" ("हरि कहे/बोले जाने वाले भगवान्")। टीका में श्रीधरस्वामी कहते हैं कि 'आहृतः व्याहृतः'। अतः यदि 'आहृति' शब्दका भी "जो बोली जाए" यह अर्थ है तो 'व्याहृति' = वि + आहृति में वि उपसर्ग का "विशेष" अर्थ लेना उपयुक्त है। "विशिष्टा आहृतिः इति व्याहृतिः"। "जो विशेष आहृति है" या "जो विशेष रूप से बोली जाए" वह व्याहृति है। 

मन्त्र शास्त्र में 'भूः', 'भुवः', 'स्वः', 'महः', 'जनः', 'तपः', 'सत्यम्' ये सात व्याहृतियाँ कही गयी हैं। इनमें 'भूः', 'भुवः', 'स्वः' ये तीन महाव्याहृतियाँ हैं। ये विशेष उक्तियाँ मन्त्रों के प्रारम्भ में विशेष रूप से बोली जाती हैं अतः इन्हें व्याहृतियाँ या महाव्याहृतियाँ कहा जाता है।

और भी कारण है कि ये विशेष उक्तियाँ 'व्याहृति' कहलाती हैं। बृहद् योगी याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है—

चतुर्दशविधं सर्गं दृष्ट्ववेदं व्याहृतं स्वयम्।
सप्त लोका भविष्यन्ति तस्मात् व्याहृतयः स्मृताः॥ ३.७ ॥
भूर्भुवःस्वस्तथा पूर्वं स्वयमेव स्वयम्भुवा।
व्याहृता ज्ञानदेहेन तेन व्याहृतयः स्मृताः॥ ३.९ ॥

"[सात लोकों में] चौदह प्रकार की सृष्टि देखकर यह (व्याहृति-सप्तक) स्वयं व्याहृत (=प्रकाशित) हुआ। [और] सात लोक [आगे] भी होंगे [यह व्याहृत अर्थात् प्रकाशित हुआ] इस कारण से ये व्याहृतियाँ कहलाती हैं। और प्रारम्भ में भूः, भुवः, और स्वः को स्वयं ब्रह्मा ने अपने ज्ञान रूपी शरीर से पहले कहा था (व्याहृत किया था), इस कारण से ये व्याहृतियाँ कहलाती हैं।"

तीन महाव्याहृतियाँ (भूः, भुवः, और स्वः) ब्रह्माण्ड के तीन लोकों अर्थात् पृथिवी, अन्तरिक्ष, और स्वर्ग का प्रतीक हैं। ये मनुष्य के स्थूल शरीर का भी प्रतीक हैं, भूः शरीर के निचला भाग की, भुवः मध्य भाग की, और स्वः ऊपरी भाग की प्रतीक हैं। मनुस्मृति में कहा है कि तीन महाव्याहृतियाँ तीन वेदों का सार हैं। मनु महाराज कहते हैं "प्रजापतिः वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भुवःस्वरितीति च" (२.७६) अर्थात् प्रजापति ने तीन वेदों से भूः, भुवः, और स्वः को दुहा (ऋग्वेद से भूः, यजुर्वेद से भुवः, और सामवेद से स्वः)। अतः तीन महाव्याहृतियाँ तीन वेदों की प्रतीक हैं। वेद परब्रह्म के ज्ञान का साधन हैं। वेद आध्यात्मिक प्रतीक भी हैं। शुक्लयजुर्वेद में एक सुन्दर मन्त्र है "ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये" (३६.१)। इसके अनुसार ऋग्वेद वाणी है, यजुर्वेद मन है, और सामवेद प्राण हैं। इस प्रकार भूः वाणी है, भुवः मन है, और स्वः प्राण है। तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षावल्ली के अनुसार हृदय के भीतर जो पुरुष (भगवान्) हैं वे अग्नि में भूः के रूप में, वायु में भुवः के रूप में, सूर्य में स्वः के रूप में, और ब्रह्म में चतुर्थ व्याहृति महः के रूप में प्रतिष्ठित हैं। एतावता भूः, भुवः, और स्वः बाह्य जगत् में अग्नि, वायु, और सूर्य हैं और आन्तरिक जगत् में ब्रह्म की तीन प्रतिष्ठान हैं। अनेक लोगों में एक भ्रान्ति है कि तीन महाव्याहृतियाँ वैदिक गायत्री मन्त्र में जोड़ी गयी हैं। सत्य तो यह है कि गायत्री मन्त्र महाव्याहृतियों सहित शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी माध्यन्दिन संहिता में प्राप्त है (मन्त्र ३६.३)।

इसी प्रकार सात व्याहृतियाँ सात लोकों की, शरीर के सात भागों की, और सात चक्रों की प्रतीक हैं। बाह्य जगत् में सात लोक हैं—भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, और सत्यलोक; आन्तरिक जगत् में ते सात चक्र हैं—मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।


Courtesy: Dr.Karoda Subramanyam

explain the main difference between the Gayatri Mantra with 3 Vyahruti and 7 Vyahruti                          
                                                     -- Vidvan Jaya Prakash

The question is related to कल्पशास्त्रम् - गृह्यसूत्रम् ---

Since there are three sentences in  गायत्रीमन्त्र only three व्याह्रुतिs are taken as per गृह्यसूत्रम् ।

I shall take up उपनयनम् from आपस्तम्बगृह्यसूत्रम्  and discuss the matter --

कल्पः - कल्प्यते समर्थ्यते मन्त्राणां प्रयोगः अत्र अनेन वा (घञ्) इति कल्पः ।

कल्पशास्त्रम् deals with the practical part of different rites - the procedure.

आपस्तम्बगृह्यसूत्रम् ( खण्डः 11 स् 8-11) with सूत्रतात्पर्यदर्शनम् of सुदर्शनाचार्य --

सू 8 -- पुरस्तात् प्रत्यङ्ङासीनः कुमारो दक्षिणेन पाणिना दक्षिणं पादम् अन्वारभ्य आह सावित्रीं भोः अनुब्रूहीति ।

आचार्य is facing east whereas कुमार is facing west  , both of them face each other , कुमार holds आचार्य's right foot with right hand and says आचार्य preach me गायत्री ।

सू 9 - तस्मा अन्वाह तत्सवितुरिति

आचार्य  says - तत्सवितुर्वरेण्यम् ( etc , to be construed along with the next सूत्रम्)

सू 10 - पच्छोर्धर्चशः ततः सर्वाम् 

Having stopped at the end of each पाद of the ऋक् , then stopping at the end of half of the ऋक् and finally stopping at the end of complete ऋक् -- 

1. तत्सवितुर्वरेण्यम् । भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।

2. तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।

3. तत्सवितुः .... प्रचोदयात् ।

सू 11. व्याहृतीः विहृताः पादादिषु अन्तेषु वा तथा अर्धर्चयोः उत्तमायां कृत्स्नायाम् 

Separated व्याहृतिs , viz भूः , भुवः , स्वः , these three are pronounced - before or after the three legs (of गायत्री) , or - before or after two legs, or pronounce the last व्याहृति , ie स्वम् , before or after the entire गायत्री ।

What about the ओंकार ( प्रणवः) ?

ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ( तै उ 1-8)

ओंकारः स्वर्गद्वारं तस्मात् ब्रह्माध्येष्यमाणः एतदादि प्रतिपद्येत ( आप धर्मसू  1-13-6)

ओमभ्यादाने (पा सू )

प्रणवश्छन्दसामिव ( कालिदासः - रघु.)

But the above said procedures of pronouncing व्याहृतिs are not in practice in this part of the country - it is simply

ओं भूर्भुवस्सुवः । तत्सवितुः ....प्रचोदयात् ।

In मन्त्राधिकरणम् of पूर्वमीमांसा  also it is concluded that whatever , in whatever form , is inherited from scholars as मन्त्र should be taken as प्रमाणम् ।

Therefore , for doing जप , गायत्रीमन्त्र would have three व्याहृतिs whereas in स्वाध्याय (वेदाध्ययनम्) it would have seven .

धन्यो'स्मि

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