।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।
रेमे रमेशो.....
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एवं परिष्वंगकराभिमर्श- स्निग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः।
रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः।।
–श्रीमद्भागवत 10/33/17
रेमे तया स्वात्मरतः आत्मारामोऽप्यखण्डितः ।
कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम् ॥
रेमे इत्यादिशुकोक्तिः । आत्मरतः स्वतस्तुष्टः । आत्मारामः स्वक्रीडः । अखण्डितः स्त्रीविभ्रमैरनाकृष्टोऽपि तथा चेत्किमिति रेमेऽत आहकामिनामिति ।
सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम् । हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः । स्त्रीणां दुरात्मतामाहसा चेति द्वाभ्याम् । कामो यानमागमनसाधनं यासां ता गोपीर्हित्वा मां भजत इति हेतोरात्मानं वरिष्ठं मेने इति । एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति । ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत । कामिनां दैन्यं दर्शयतिएवमुक्त इति । अखण्डितत्वमाहततश्चेति । तस्यां स्कन्धारोहोद्यतायामन्तर्हित इत्यर्थः ॥
हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज । दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥
"हे परीक्षित! जैसे छोटे बालक निर्विकार भाव से अपने प्रतिबिम्ब के साथ खेला करते हैं, वैसे ही रमारमण रमेश भगवान् श्रीकृष्ण ने भी व्रज सुन्दरियों के साथ क्रीड़ा की। कभी भगवान् उन्हें अपने हृदय से लगा लेते, कभी हाथ से उनका अङ्ग स्पर्श करते, कभी प्रेमभरी चितवन से उनकी ओर देखते तो कभी लीला से उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दरियों के साथ क्रीड़ा की, विहार किया।"
भावार्थ
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सच्चिदानन्दघन सर्वान्तर्यामी प्रेमरसस्वरूप, लीलारसमय परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी ह्लादिनी शक्तिरूपा आनन्द-चिन्मयरस-प्रतिभाविता अपनी ही प्रतिमूर्ति से उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्बस्वरूपा गोपियों से आत्मक्रीडाअ की। पूर्णब्रह्म सनातन रसस्वरूप रसराज रसिक-शेखर रस-परब्रह्म अखिलरसामृतविग्रह भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द-रसमयी दिव्य क्रीडा का नाम ही रास है। इसमें न कोई जड शरीर था, न प्राकृत अंग-संग था और न इसके सम्बन्ध की प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था चिदानन्दमय भगवान का दिव्य विहार, जो दिव्य लीलाधाम में सर्वदा होते रहने पर भी कभी-कभी प्रकट होता है। वियोग ही संयोग का पोषक है, मान और मद ही भगवान की लीला में बाधक हैं। भगवान की दिव्य लीला में मान और मद भी, जो कि दिव्य हैं, इसीलिये होते हैं कि उनसे लीला में रस की और भी पुष्टि हो। भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीलानुरूप मान और मद का संचार हुआ और भगवान अन्तर्धान हो गये। जिनके हृदय में लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मान का संस्कार शेष है, वे भगवान के सम्मुख रहने के अधिकारी नहीं। अथवा वे भगवान के पास रहने पर भी, उनका दर्शन नहीं कर सकते। परन्तु गोपियाँ गोपियाँ थी, उनसे जगत के किसी प्राणी की तिलमात्र भी तुलना नहीं है।
तात्पर्य
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लीला-रसमय आनन्दकन्द भगवान् स्वभाव से प्रेमवश हैं। अतएव उन्होंने प्रेमभाव से ही अपने आनन्द स्वरूपा शक्ति द्वारा अपने ही प्रतिबिम्ब रूप प्रेमस्वरूपा महाभागा गोपियों के साथ क्रीड़ा की। उनका तो यह आत्मरमण था और गोपियों का इसमें श्रीकृष्णसुख ही एक मात्र उद्देश्य था।
यद्यपि 'रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिः' भगवान रमेश व्रज की सुन्दरियों के साथ रमते हैं, तथापि उनका यह रमण सामान्य नहीं है। यहाँ ऐसा अर्थ मत लगाइए कि एक पुरुष दूसरों की स्त्रियों के साथ नृत्य कर रहा है। तो फिर उनका यह रमण कैसा है? जैसे, कोई बच्चा अनेक आईनों में या पानी के पात्रों में अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर, उनके साथ खेलने लग गया हो। जरा सोचो, वह बच्चा किसके साथ खेल रहा है? ये तो बिम्ब-प्रतिबिम्ब हैं, इन्हीं को हम अलग-अलग समझते रहते हैं, वास्तव में वे अलग-अलग नहीं हैं। यह रमण लौकिक दृष्टिगत होते हुए भी अलौकिक है।
–रमेशप्रसाद शुक्ल
–जय श्रीमन्नारायण।
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