*धनेन किं यन्न ददाति नाश्नुते*
*बलेन किं येन रिपुं न बाधते।*
*श्रुतेन किं येन न धर्ममाचरेत्*
*किमात्मना यो न जितेन्द्रियो वशी॥*
अर्थात - उस धन से क्या लाभ, जिसे मनुष्य न तो दान दे सके और न ही उस का उपभोग ले सके ? उस बल से क्या लाभ, जिससे शत्रुओं को बाधित न किया जा सके ? उस शास्त्रज्ञान से क्या लाभ, जिसके द्वारा मनुष्य धर्माचरण न कर सके ? और उस जीवात्मा से क्या लाभ , जो न तो जितेन्द्रिय है और न मन को ही वश में रख सकता हैं।
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