Tuesday, July 28, 2020

Self is the dearest - brihadaranyaka upanishad

धन, पुत्र, देह आदि अनात्मवस्तुयों के प्रति प्रेमतारतम्य का कारण क्या है ?

उत्तर :- अध्यास व्यवधान के तारतम्य ही ऐसा प्रेमतारतम्य के प्रति हेतु है ।

शेषाः प्राणादिवित्तान्ता आसन्नास्तारतम्यतः ।     https://www.facebook.com/rahul.advaitin/posts/2742103845865241  Rahul Smarth's post in FB
प्रीतिस्तथा तारतम्यात्तेषु सर्वेषु वीक्ष्यते ॥

~ पञ्चदशी, द्वादशप्रकरणम् , श्लोक ५६

आत्मा का अन्तिम उपकारक अर्थात् भोग्य सामग्रीरूप - प्राण से लेकर वित्त पर्यंत अनात्म पदार्थसमूह न्यूनाधिक्रूप से आत्मा का समीपवर्ती है । उस सामीप्य का तारतम्यानुसार उन सभी पदार्थों के प्रति लोगों की न्यूनाधिक प्रीति दृष्ट होती है ।

परमपूज्य वार्तिककार श्री सुरेश्वराचार्य जी ने कहा भी है -

वित्तात्पुत्रः प्रियः पुत्रात्पिण्डः पिण्डात्तथेन्द्रियम् ।
इन्द्रियाच्च प्रियः प्राणः प्राणादात्मा परः प्रियः ॥

तात्पर्य :- पुत्रभार्यादि के विपन्निवारण हेतु कोई भी धन का व्यय करता है , अतः धन से पुत्र प्रिय सिद्ध हुआ । तथा निजदेह की रक्षा हेतु कभी पुत्रभार्यादि का परित्याग भी करते है । इसलिए पुत्रादि से पिण्ड (देह) प्रिय सिद्ध हुआ । इन्द्रिय का विलोपपरिहार हेतु तारण / शल्यक्रिया आदि करते हुए देह को पीड़ित भी करते है, अतः देह से इन्द्रिय प्रिय है । और मरण संभावना होनेपर इन्द्रियादि के वैकल्य या अंगादि का छेदन (amputation) भी स्वीकार करते है । इस तरह धन से लेकर प्राण तक अनात्म पदार्थों के प्रति उत्तरोत्तर प्रेमाधिक्य सबका अनुभवसिद्ध है । एवं आत्मा निरतिशय प्रिय है यह विद्वानों का अनुभवसिद्ध है ।

( पञ्चदशी पर श्रीरामकृष्णटीका के अनुसार यहाँ ' प्राण ' शब्द से प्राणोपलक्षित मन ही अभिप्रेत है , क्योंकि मन ही स्वरूपानंद के प्रतिबिम्ब का ग्राहक है एवं इन्द्रियसमूह का प्रेरक होनेसे उनकी स्वामी है । द्वितीयतः, नेत्रादि इन्द्रिय जब पीड़ावशतः चित्तविक्षेप का हेतु बनता है तो लोग यही कहते है - यह इन्द्रिय तिरोहित होनेपर ही हमे शान्ति मिलेगी । इसलिए प्राण शब्द से मन अभिप्रेत है । किन्तु देह से मन का बहिर्गमन प्राण का परित्याग कर स्वतंत्र रूप से नहीं होता, इसलिए प्राण कहा गया । )

[ English translation of Siddhantabindu by S.N. Sastri :-

There is gradation in attachment depending on the gradation in proximity between the substratum and what is superimposed. It has been said by the venerable Vaartikakaara (Sureshvaracharya) :-

"The son is dearer than wealth, one's own body is dearer than the son, the senses are dearer than the body, the mind is dearer than the senses, the self is dearer than the mind and is the most loved".

~ (Brihadaranyakopanishad Bhashya Vartikam, 1.4.1031)

Pinda- the physical body ; prana- the inner organ (mind); That the senses are dearer than the physical body is patent from the common experience of a person instinctively closing his eyes at the fall of a weapon or when there is a sudden downpour. ]

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